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LOVE..............

प्रेम :- एक बड़ा ही गूढ़ एवं व्यापक विषय है। जहा प्रेम होता है, वह किसी अन्य वास्तु की आवश्यकता महसूस ही नहीं होती , मानव जीवन में  प्रेम को ही सर्वोपरि माना  था।  परन्तु हमें एक  बहुत  ही बुरी आदत है की हम किसी भी वस्तु को विज्ञानं के  तराजू में तोल  कर ही आगे बढ़ना पसंद करते है।  लिहाज़ा आज परिणाम हमारे सामने है। परम पूज्य गुरुदेव पंडित श्री राम शर्मा जी ने कहा है की विज्ञान अँधा है।  उसके पास आँखे नहीं है। आँखे है अध्यात्म के पास।  और असली प्रेम के मायने तो अध्यात्म ही सिद्ध करता है। अध्यात्म  कहता है जिससे प्रेम बढ़ाना हो , स्वार्थ और अहंकार को त्याग कर उसके हित के कार्य में लग जाना ही प्रेम अभिवृद्धि का सर्वोत्तम उपाय है।  जैसे मनुष्य यदिजिस व्यक्ति विशेष से परम करता है तो सदैव उसके बारे में ही विचार करता रहता है उसके हित की बातें ही सोचता रहता है।  उसी प्रकार यदि मनुष्य को परमात्मा से प्रेम हो तो सदैव परमात्मा के बारे में ही विचार करते रहना ही सर्वोपरि उपाय है।  और यही मुक्ति का मार्ग भी है।  यही ईश्वर प्रणिधान भी है। प्रेम को स्वार्थ  की गंध भी नहीं लगनी चाहिए।  जहा स्वार्थ

DHYAN

वेद हमारे  जीवन की की आधार शिला है।  ऐसी हमारी मान्यता एवं धारणा  है।  जो पूर्णतयः सही भी है  , इसके वैदिक मंत्र आखिर आये  कहा से ?  किसने की है इनकी रचना?   क्या उन्हें अपने जीवन में कोई अन्य कार्य नहीं था जो उन्होंने यही कार्य कर डाला?   यह सब बातें मेरे मन को झकझोरती रहती है। काफी परिश्रम व् मेरे चाहत के अनुरूप मुझे परिणाम प्राप्त होने लगे और मुझे पता चला की वाकई उन ऋषिओ , महाऋषिओ ने अपने सम्पूर्ण जीवन की आहुति दे कर, खुद को तपा कर ये वैदिक मन्त्र अविष्कृत किये और हमारे जीवन की सुलभता और सरलता के लिए उन्होंने इसे लिपिबद्ध किया जो आज हम वेदो को देख, सुन व समझ पाते  है।  हम उन्ही ऋषि ऋषिकाओं की संताने है , पर आज जब वे हमे देखते होंगे तो उन्हें बहुत दुःख होता होगा , आखिर उन्हें इसकी जरुरत क्यों हुई ?  क्यों की वे जानते थे की मनुष्य बहुत ही अबोध है , और  अबोध होने के  साथ ही साथ इसमें और अधिक पाने की कामनाएं भी है , और उन कामनाओ के चलते मनुष्य व्यभिचारी , दुराचारी भी होता चला जायेगा , उन्हें कहीं न कहीं इन बातों का आभास पूर्व में ही हो चूका था , इस हेतु हम मनुष्यो के लिए हमारे

only yoga can gives us a completness ........

मनुष्य अपने जीवन मे चारो ओर केवल और केवल सुख को हि ढूँढते राहता है।  परन्तु आखिर कार उसे मूल रूप से सुख कि प्रप्ति नही  ही  हो पाति। किसी ने सोचा आखिर ऐसा क्यो हो रह है।  यदि हम अपने जीवन को ध्यान पूर्वक देखे थोड़े शान्ति पूर्वक अपने और अपने इश्वर के पास बैठे तो कही ज कर हूमे उस वास्तिवक षांति कि प्रप्ति हो पायेगी, जिसकी वाकई हमे तलाश थी।  तब हम अपने जीवन से खुश रहेंगे।  ख़ुशी हमे कही बाहर से प्रप्त नहि हो सकती।  इसे हमे अपने भीतर हि ढूँढना है।  क्योकि सच्ची ख़ुशी और सच इश्वर हमरे भित्तर हि वराजमान है