LOVE..............

प्रेम :- एक बड़ा ही गूढ़ एवं व्यापक विषय है।

जहा प्रेम होता है, वह किसी अन्य वास्तु की आवश्यकता महसूस ही नहीं होती , मानव जीवन में  प्रेम को ही सर्वोपरि माना  था।  परन्तु हमें एक  बहुत  ही बुरी आदत है की हम किसी भी वस्तु को विज्ञानं के  तराजू में तोल  कर ही आगे बढ़ना पसंद करते है।  लिहाज़ा आज परिणाम हमारे सामने है।

परम पूज्य गुरुदेव पंडित श्री राम शर्मा जी ने कहा है की विज्ञान अँधा है।  उसके पास आँखे नहीं है।
आँखे है अध्यात्म के पास।  और असली प्रेम के मायने तो अध्यात्म ही सिद्ध करता है।

अध्यात्म  कहता है जिससे प्रेम बढ़ाना हो , स्वार्थ और अहंकार को त्याग कर उसके हित के कार्य में लग जाना ही प्रेम अभिवृद्धि का सर्वोत्तम उपाय है।  जैसे मनुष्य यदिजिस व्यक्ति विशेष से परम करता है तो सदैव उसके बारे में ही विचार करता रहता है उसके हित की बातें ही सोचता रहता है।  उसी प्रकार यदि मनुष्य को परमात्मा से प्रेम हो तो सदैव परमात्मा के बारे में ही विचार करते रहना ही सर्वोपरि उपाय है।  और यही मुक्ति का मार्ग भी है।  यही ईश्वर प्रणिधान भी है।

प्रेम को स्वार्थ  की गंध भी नहीं लगनी चाहिए।  जहा स्वार्थ का भाव आया , वही प्रेम का टूटना भी निश्चित है ,
वास्तव में स्वार्थ और अहंकार - ये दोनों ही प्रेम मार्ग में बड़े बाधक तत्त्व है।  अतः इनसे बचना चाहिए।

श्रीमद भगवद गीता को यदि देखे तो स्वयं भगवन श्री कृष्णा ने कहा है की
कर्म करो पर फल की इच्छा मत करो।  सिर्फ कर्म करना ही तुम्हारे वष में है।  फल की इच्छा के साथ जुड़ता है अहंकार , जो मनुष्य के सर्वनाश के लिए अकेला ही पर्याप्त है।
उदहारण यदि हम रह चलते किसी मनुष्य की मदद करते है तो क्या हम उससे उसके विपरीत कोई इच्छा रखते है ? नहीं, तो फिर हम अपने परिवारी जन से विपरीत प्रति क्रिया  कि अपेक्षा क्या रखतें है।

सारी  समस्या कि जड़ यही  है कि हम दूसरों से अपेक्षा रखते है और उनके पूरा न होने पर हम दु:खी हो जाते है. अर्थात प्रेम क समपान हो ज़ाता है।

  

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